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पहली दिवाली, जब राम अयोध्या लौटे...

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पहली दिवाली, जब राम अयोध्या लौटे...

पहली दिवाली
जब राम अयोध्या लौटे...
उस दिन हर आंख कौशल्या और हर भुजा भरत थी!

आज के व्यस्त और हर प्रकार के मनोरंजन से भरे समय में जब दीपावली का उत्सव अपने आने की खुशबू भर से करोड़ों लोगों के जीवन में उल्लास - उत्साह व उमंग भर देता है तो जरा सोच कर देखिए कि जिस दिन त्रैलोक्य के स्वामी दाशरथि राम, दुनिया के सबसे शक्तिशाली सैन्य बल व उसके अजेय सेनापति दशानन को पराजित करके अवध वापस लौटे होंगे उस दिन कैसा वातावरण रहा होगा? दीपोत्सव का त्योहार सात्विकता पर लोक की अडिग आस्था का एक अद्वितीय परिचायक है। राम प्रभुता के शिखर पर विराजित होने के बावजूद लोक नायक हैं। प्रभुत्व व मनुष्यत्व दोनों एक साथ अधिक समय तक नहीं टिक पाते पर मेरे राम इसके अपवाद हैं, इसीलिए वे साक्षात ईश्वर हैं। वे राजवंशी हैं पर उनकी प्रजा उनके स्नेह द्वारा शासित होने के साथ साथ उनके प्रति भक्तिभाव से समर्पित भी है। उनके प्राकट्य में पूरी प्रकृति का उल्लास है, बचपन में पूरे अंतःपुर की उमंग है, निष्कासन में समूची अयोध्या का दुःख है, वनागमन में समस्त सात्विकों का संबल है, लड़ाई में पूरे देवताओं की प्रार्थना है तथा विजय में शाश्वत सत्य का एक चिर प्रतीक्षित उद्घोष है। राम के अयोध्या लौटने पर हर आंख कौशल्या है और हर भुजा भरत है।

भगवान राम के वापस अयोध्या लौटने पर हमारी लोक कथाओं में बड़े सुंदर और सरस प्रसंग दिखाई पड़ते हैं। जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो हर व्यक्ति उन्हें देखने के लिए आकुल था। राम की अयोध्या सड़कों पर उमड़ उमड़ पड़ी है। सड़क के किनारे दूर-दूर तक लोग क़तारों में खड़े हो गए। नेत्रों में स्नेह का भाव लिए माताएं, एक प्रखर पौरुष में अपने गत-यौवन का उत्कर्ष देख रहे पिता तथा समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधि से लेकर अंतिम व्यक्ति तक, उन क़तारों में पूरी अयोध्या के रूप में समूची मनुष्यता हो तो उपस्थित थी।

"सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद |

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बूंद ॥"

भगवान राम लोगों का स्नेह व अभिवादन स्वीकार करते हुए चलते रहे। राघवेंद्र की आंखों में उस विशाल भीड़ में अचानक एक नन्हा अधूरापन खटका। उन्होंने अपने प्रिय अनुज भरत से पूछा, 'क्या अयोध्या मेरे आगमन से पूरी तरह प्रसन्न नहीं है वत्स ?' भरत ने विस्मय भरते हुए उत्तर दिया, 'भईया, आज तो अयोध्या के चिर-प्रतीक्षित भाग्योदय का दिन है। पूरी अयोध्या तो क्या पूरा त्रैलोक्य आह्लादित है। अयोध्या के समस्त निवासी आपके स्वागत के लिए सड़कों पर उपस्थित है। आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि अयोध्या प्रसन्न नहीं है?.

भगवान राम ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, 'मुझे इस अनगिनत लोगों की भीड़ में एक भी बच्चा दिखाई नहीं पड़ा। क्या बच्चे बच्चियों के मन में मेरे आगमन को लेकर कोई उत्साह नहीं है?'

यह सुनकर भरत की आंखों में आंसू आ गए। भरत ने भरे कंठ से उत्तर दिया कि भईया जिस दिन से अयोध्यावासियों को पता चला कि आपने और भगवती स्वरूपा हमारी भाभी मां ने वन में इस वनवास की तापसी मर्यादा के पालन हेतु ब्रह्मचर्य के पालन का व्रत लिया है उस दिन के बाद से अयोध्या में लोग गृहस्थ रहते हुए भी गृहस्थ नहीं रहे। आपके साथ-साथ यहां पूरी अयोध्या ने भी चौदह वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत निभाया है। चौदह साल अयोध्या के आंगनों ने किलकारी नहीं, आपके मंगल की प्रार्थनाएं ही सुनी हैं। इसलिए आज आपका स्वागत करने के लिए इस विशाल भीड़ में कोई भी बच्चा दिखाई नहीं पड़ रहा।' सरयू के पानी ने राम की आंखों में उत्तर आए आंसुओं को प्रणाम किया।

व्यक्ति की संवेदना उसके जीवन को निर्धारित करती है। उसके व्यक्तिगत निर्णयों का आधार बनकर उसे विशिष्ट या सामान्य बनाती है पर समाज की संवेदना का प्रभाव इससे कई गुना व्यापक होता है। व्यक्तिगत संवेदनाएं लक्ष्मण और भरत जैसे भाई कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा जैसी माताएं और उर्मिला तथा मांडवी जैसी पत्नियों का चिरंजीवी चरित्र रचती है तथा सामाजिक संवेदना अवध जैसा समरसतावादी राज्य, राम-राज्य जैसी समाजवादी संकल्पना और दीपावली जैसा लोक-पर्व सृजित करती है। आज के इस समय में समाज को दोनों की समान रूप से आवश्यकता है।

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