बहती नदी - सी है हिंदी भाषा बदलती रहती है इस पर तो सभी सहमत हैं, लेकिन भाषा में जो बदलाव आता है उसे लेकर राय अलग - अलग है। हिंदी दिवस के मौके पर पढ़ें, इस मुद्दे पर राहुल देव की राय :-
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भाषा को अंग्रेजी से खतरा, उर्दू से नहीं : राहुल देव (पत्रकार) |
भाषा को अंग्रेजी से खतरा, उर्दू से नहीं : राहुल देव (पत्रकार)
भाषा जीवंत चीज है। वह अपने समय, परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहती है। आज से 50 या 25 साल पहले जो भाषा लिखी जा रही थी आज वैसी नहीं लिखी जा सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि कई बड़े परिवर्तन आए हैं। हमारी परिस्थितियां बदली हैं, नई जीवन शैली है, नई चीजें शामिल हुई है।
25 साल पहले मोबाइल फोन नहीं थे। तब जो शुद्धतावादी थे उन्होंने उसे 'दूरभाष' कहना शुरू किया लेकिन वह शब्द नहीं चला। फिर कार आई तो कार ही रही। अब स्टार्टअप आ गए हैं और साइबर आ गया तो उससे जुड़े शब्द भी। इसलिए आज जो साहित्य लिखा जाएगा या पत्रकारिता होगी तो उसमें ये शब्द भी आएंगे। इस परिवर्तन का स्वागत ही किया जाना चाहिए। लेकिन मेरे लिए समस्या वाली बात यह है कि हिंदी के नए लेखक भाषा की गरिमा और शील के प्रति सचेत नहीं है। अंग्रेजी में इसके लिए इंटिग्रिटी शब्द इस्तेमाल होता है। यह सही है कि भाषा अपने समय, संस्कृति, परिप्रेक्ष्यों और संदर्भों को अभिव्यक्त करती है। लेकिन भाषा के कुछ स्थायी तत्व होते हैं। उसकी संरचना और शील होता है।
आज नए लेखन में हम पाते हैं कि सिर्फ अंग्रेजी के शब्द ही नहीं आए, अंग्रेजी की अभिव्यक्तियां पूरी की पूरी शामिल हो रही है। अधिकांश युवा लेखक जिनसे मेरी बात भी होती है, उन्हें अपने लेखन में यथार्थ दिखाना है तो युवा जिस भाषा में बोल रहे हैं, वही दिखेगी लेकिन चैनल, अखवार आदि की भाषा से नई पीढ़ी अपनी भाषा का निर्माण करती है। इसलिए उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। कुछ अखबार हिंदी की दैनिक हत्या कर देते हैं। उनके किशोर पाठक वही हिंदी सीखेंगे जो उन्हें पढ़ने को मिलेगी। कई हिंदी बोलने वाले कहते हैं कि मेरे फादर फलां जगह काम करते हैं, मेरी मदर फलां जगह रहती हैं। मेरी एक एल्डर सिस्टर है। क्या इसे हिंदी कहेंगे ? अगर इसका इस्तेमाल साहित्य में कर रहे है तो ऐसी अपाहिज भाषा से हम युवा पाठक का नुकसान कर रहे हैं। अंग्रेजी में दूसरी भाषाओं के शब्दों की इस हद तक मिलावट नहीं होती। बोलचाल की भाषा के नाम पर ऐसा नहीं होना चाहिए।
खिचड़ी भाषा से बचना चाहिए। लेखक को जिम्मेदारी है कि अपनी भाषा को बचाए कई युवा साहित्यकार कहते हैं कि मेरा पाठक तो यही समझता है और मैं बेस्ट सेलर भी हूँ। मेरी उनसे बात होती है। फिर भी यह शिकायत तो है। हालांकि हम उनसे महादेवी वर्मा या जयशंकर प्रसाद जैसी भाषा की अपेक्षा नहीं करते।
दूसरी तरफ हिंदी के कुछ शुद्धतावादियों और दक्षिणपंथियों को यह शिकायत है कि हिंदी से उर्दू या फारसी के शब्द निकालिए। लेकिन यह मूर्खता है। अरबी या उर्दू - फारसी के शब्दों को निकालकर, जो सैकड़ों साल से हमारी संस्कृति का हिस्सा है, हम न तो हिंदी बोल सकते हैं और न लिख सकते हैं। कुर्सी को क्या लिखेंगे, कमरे को कक्ष कहेंगे ? कुर्ता पायजामा के लिए संस्कृत में क्या शब्द है ?
दरअसल यह दुराग्रह है, इसके पीछे मुसलमानों से चिढ़ है। हिंदी, उर्दू के बिना न तो जीवित रह सकती है और न चल सकती है। यह अतिवाद है या कहें उर्दू कि सांप्रदायिकता है।
उर्दू और हिंदी तो एक ही जगह से एक ही मां से पैदा हुई है। उर्दू को गैर - हिंदुस्तानी मानना गलत है। मेरी भाषा का संस्कार संस्कृतनिष्ठ हिंदी का है। रसोई, मेज, कुर्सी ये देशज शब्द है, इनका भी इस्तेमाल होता है। भाषा कई तरह के शब्दों से बनती है।
जयशंकर प्रसाद के समय में अलग हिंदी थी। हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखी 'बाणभट्ट की आत्मकथा' पढ़े तो शब्दकोश की जरूरत पड़ जाती है। वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। लेकिन इन्होंने सहज भाषा में, अवधी और भोजपुरी में भी लिखा है।
मैं कहता हूं कि हिंदी पर किसी दूसरी वर्चस्वशाली भाषा का दबाव इतना न हो जाए कि वह नष्ट हो जाए। फिलहाल हिंदी के साथ अंग्रेजी की वजह से यहीं हो रहा है। यह संकट सभी भारतीय भाषाओं के सामने है। अगर हम हिंदी में रंगों के नाम, दिनों और महीनों के नाम, सब्जी - फलों के नाम, गिनतियां आदि भी इस्तेमाल न करे तो क्या भाषा रहेगी ? हमें उर्दू से खतरा उतना नहीं है, जितना अंग्रेजी से है। ऐसा होता रहा तो अगले 50-100 साल बाद भाषा कहां बचेगी।
( रजनी शर्मा से बातचीत के आधार पर )