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भाषा को स्वर्गीय न बनाएं : दिव्य प्रकाश दुबे

बहती नदी - सी है हिंदी भाषा बदलती रहती है इस पर तो सभी सहमत हैं, लेकिन भाषा में जो बदलाव आता है उसे लेकर राय अलग - अलग है। हिंदी दिवस के मौके पर पढ़ें,  इस मुद्दे पर दिव्य प्रकाश दुबे की राय :-

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भाषा को स्वर्गीय न बनाएं : दिव्य प्रकाश दुबे

भाषा को स्वर्गीय न बनाएं : दिव्य प्रकाश दुबे

भाषा शुद्ध चीज नहीं है वह शुद्ध देशी घी की तरह नहीं मिलती।

भाषा गंगा की तरह है वह नदी है , उसमें कई तरह की चीजें मिलती रहती हैं लेकिन फिर भी वह अशुद्ध नहीं होती।

गंगा में अच्छी या खराब चीजें मिल जाए तो भी वह गंगा है। दूसरी बात आती है कि भाषा शुद्ध है यह कौन तय करेगा ? एक भाषा यह है जो हम बोलते हैं, एक वह जो हमारे दादाजी या उनकी नानी जो बोलती थीं , जिस भाषा में वह कहानी सुनाती थीं वह भाषा कितनी बदल गई है।

शुद्धतावादियों के हिसाब से सोचें तो भाषा को शुद्ध करने का मतलब है कि किसी बहती नदी को रोक देना। लेकिन मेरा तर्क है कि अगर भाषा को बहने से रोक दिया तो वह असल में अशुद्ध हो जाएगी क्योंकि पानी को रोक दिया तो वह तालाब हो जाएगा और तालाब का पानी सड़ने लगता है।

जब भी कोई समाज बदलता है तो अपने हिसाब से चीजों को अपनाता है। इसके लिए किसी यूनिवर्सिटी, सरकारी दफ्तर या अखबार के दफ्तर में बैठकर कोई 4 लोग नहीं तय करते। उसे तय करता है कोई रिक्शावाला, चाय की टपरी वाला, गली में बैठकर बातें करते लोग।

दिल्ली या लखनऊ में किसी भी चाय की टपरी पर बैठकर वहां के लोगों की बातें सुनें देखें, वहां अखबार जो छाप रहा है, उसी तरह की भाषा तो वे लोग बोल रहे हैं।

क्या संवाद करने के लिए भाषा के एक्सपर्ट बनें ?

यह उम्मीद रखना क्या ज्यादा नहीं है ?

भाषा का मकसद क्या है ? सबसे पहले यह तो समझना होगा।

आखिरकार अपनी बात दूसरे को समझाना ही इसका मकसद है।
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एक उदाहरण देता हूं। मेरे 5 साल के बेटे ने कभी अनार जलते हुए देखा होगा। कुछ वक्त पहले मैं मुंबई से गुजर रहा था। वहां बेटे ने एक फव्वारा चलते हुए देखा उसे नहीं पता था कि वह फाउंटेन है या फिर फव्वारा है। उसने मुझसे कहा कि देखो पापा! पानी का अनार चल रहा है। वह अपनी बात कह पाया या नहीं ? उसने फव्वारा नहीं कहा लेकिन मैं समझ गया। उसने मुझे सोचने का नया नजरिया दे दिया। मैं इतनी बार उस फाउंटेन के पास से गुजरा लेकिन कभी यह सोच ही नहीं पाया था। लेकिन अब वह फव्वारा मेरे लिए पानी का अनार भी हो गया। इस तरह भाषा को लेकर मेरी हद को भी उसने तोड़ा।

हम अगर भाषा को जड़ कर देंगे तो हम उसे रोक रहे हैं।

भाषा की शुद्धता के बारे में बात करना बेकार है क्योंकि यह ऐसा ही है कि जैसे किसी के नाम के आगे स्वर्गीय लगाना।

भाषा को शुद्ध करने के चक्कर में पड़ेंगे तो भाषा को मारना पड़ेगा। 

दूसरी ओर जो लोग हिंदी में उर्दू के शब्दों पर ऐतराज करते हैं उन्हें समझना पड़ेगा कि उर्दू को हिंदी से अलग नहीं कर सकते।

एक वाक्य है 'मैं कमरे में आया और मैंने अपनी कमीज़ उतारकर कुर्सी पर रख दी। विंडो खोली और आकाश की ओर देखने लगा।

अब इसमें कुर्सी, कमरा, कमीज अरबी और तुर्की भाषा के शब्द है, विंडो इंग्लिश का शब्द है। इसमें आकाश संस्कृत से आया है। क्या इस लाइन को हिंदी नहीं कहेंगे ? उर्दू या हिंदी की बहस बेकार है, यह हिंदुस्तानी है।

महाभारत के एक एपिसोड में एक लाइन थी कि मेरे माथे पर शिकन आ गई।

राही मासूम रजा से जब पूछा गया कि यह शब्द क्यों चुना तो उन्होंने कहा  'मैं इस देश की जनता से संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं। आम जनता जो बोलती है, मैं उसे हटाऊंगा नहीं।' आम जनता जिस भाषा में बात करना चाहती है, उससे यह हक कैसे छीना जा सकता है।

अगर अच्छी हिंदी के नाम पर बहस करेंगे तो इसका अंत यही होगा कि अच्छी हिंदी बोल सकते हो तो मुंह खोलो, वरना चुप रहो मैं हिंदी का भविष्य काफी अच्छा देखता हूं क्योंकि मैंने तो अपना भविष्य ही इसमें बुन रखा है। वैसे हिंदी में काफी मौके बढ़ गए हैं। हिंदी में ऑडियो, वेबसाइट पोर्टल, ट्रांसलेशन का काम यह सब पूरी दुनिया में हो रहा है।

कोई छोटे शहर वाला भी रेडियो स्टेशन में कॉपी राइटर हो सकता है। हिंदी का दोस्त बनना जरूरी है। पिता और माता बनकर वैसा जुड़ाव नहीं सकता। लेकिन क्या कोर्ट की भाषा आसान नहीं हो सकती ? आसान भाषा हो तो आम लोग भी आदेश समझ सकेंगे। साथ ही हिंदी जहां पढ़ाई जाती हो या जहां औपचारिक संपर्क करना हो, वहां हिंदी उसी तरह की होनी चाहिए।

                         ( रजनी शर्मा से बातचीत के आधार पर )

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