Importance of Education |
शिक्षा का महत्त्व - Importance of Education :-
यदि शिक्षा और समय का सदुपयोग किया जाए, तो हमारा देश आज भी आत्मनिर्भर बन सकता है, लेकिन हमारी शिक्षा कैसी होनी चाहिए, उस पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए, पहले तो हम यह देखते हैं, कि शिक्षा का भारतवर्ष में स्कूलों के रूप में किसप्रकार विकास हुआ?
एक समय की बात है जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था।
तब वर्ष 1835 में लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा नीति बनाते समय भारत वर्ष को कमजोर करने के लिए संस्कार रहित शिक्षा नीति बनाई, जबकि प्राचीन समय में भारत वर्ष को विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त था।
इस शिक्षा पद्धति के बारे में स्वंय मैकाले ने कहा था, कि
"जो शिक्षा पद्धति मैं लागू कर रहा हूं उसके पाठ्यक्रम के अनुसार यहाँ के शिक्षित युवक देखने में हिंदुस्तानी लगेंगे किंतु उनका मस्तिष्क अंग्रेजियत से भरा होगा। तब वे अंग्रेजो की कठपुतली व रोबोट की तरह नाचेंगे।"
भारत में शिक्षा नीति बनाने के पीछे लॉर्ड मैकाले के दो उद्देश्य थे:-
1.पहला भारतीय संस्कृति की विध्वंसक, संस्कार रहित शिक्षा नीति बनाना।
2.और दूसरा देश के प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को शिक्षा का उद्देश्य नौकरी बताना।
जिसमें लॉर्ड मैकाले पूर्णतया सफल भी हुआ।
बहुत खेद के साथ कहना पड़ रहा है, कि हमारे देश को स्वतंत्र हुए लगभग 75 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन अभी भी हमारी शिक्षा नीति में लॉर्ड मैकाले के उद्देश्य ही नजर आ रहे हैं, जो कि हमारी भारतीय संस्कृति के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है।
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रिसर्च और सर्वे के अनुसार देखा जाए, तो आज भी बहुत अधिक मात्रा में विद्यार्थी नौकरी करना ही चाहते हैं।
आप आज भी किसी भी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों में जाकर किसी भी विद्यार्थियों से पूछना कि आपको क्या बनना है तो वह बताएंगे, कि हमें डॉक्टर बनना है या फिर हमें इंजीनियर बनना है इत्यादि ही कहेगा, लेकिन कोई भी विद्यार्थी यह नहीं कहेगा, कि मैं वह बनूंगा जिसके नीचे हजारों डॉक्टर्स, हजारों इंजीनियर्स काम करते हुए नजर आएंगे अर्थात् मुझे मालिक बनना है।
कहने का मतलब यह है कि हमारी शिक्षा नीति ने हमें नौकर बनना ही सिखाया जाता है, हमें मालिक बनना नहीं सिखाया जाता है इसलिए प्रत्येक विद्यार्थी चाहता है कि मैं भविष्य में कोई ना कोई नौकरी अवश्य करूंगा,जो कि उचित नहीं है इसलिए कहा जाता है, कि
जब तक शिक्षा का बुनियादी मकसद नौकरी पाना होगा,
तब तक समाज में नौकर ही पैदा होंगे, मालिक नहीं।
यदि हमें अपने भारतवर्ष को आत्मनिर्भर देश बनाना है, तो हमें शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य समझना चाहिए तभी हम अपने देश को आत्मनिर्भर भारतवर्ष बना सकते हैं।
आज के समय में बचपन से ही विद्यार्थियों के ऊपर यह दबाव डाला जाता है कि आपको बड़े होकर डॉक्टर बनना है या फिर इंजीनियर बनना है इत्यादि ही कहा जाता है, कोई भी यह जानना नहीं चाहता है कि वास्तव में वह विद्यार्थी क्या बनना चाहता है आपके कहने पर वह विद्यार्थी आपकी इच्छानुसार कुछ बन भी जाता है,
तो वह विद्यार्थी उस कार्य को अच्छी तरह से नहीं कर सकता। यदि विद्यार्थी स्वयं अपनी इच्छानुसार जिस कार्य को करना चाहता है, उसी कार्य को अपनी लगन से करें तो वह उस कार्य को बहुत अच्छी तरह से कर सकता है और उस कार्य में सफल भी हो सकता है, लेकिन आज के समय में इस बात को समझना ही कौन चाहता है।
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शिक्षा क्या है - What is Education :-
वास्तव में शिक्षा क्या है इसे हम सरल शब्दों में कह सकते हैं, कि शिक्षा उस पॉजिटिव मानसिक सोच का नाम है, जिसके बल पर यह व्यक्ति स्वयं का, अपने परिवार का और अपने देश का भला कर सकता है वास्तव में वही वास्तविक शिक्षा है।
इसी संदर्भ में स्वामी विवेकानंद जी के विचार भी अवलोकन करने योग्य है:-
स्वामी विवेकानंद एक दिन एक विद्यालय के कुछ छात्रों से बातचीत कर रहे थे और उनसे प्रश्न भी पूछ रहे थे और उनके प्रश्नो के उत्तर भी दे रहे थे।
बात चीत के दौरान स्वामीजी ने उन बच्चों से पूछा, "क्या तुम लोग जानते हो कि शिक्षा क्या होती है? तुममे से कोई मुझे समझा सकता है क्या ?"
एक छात्र ने आगे बढ़कर कहा "स्वामीजी, विद्या ग्रहण करने को ही शिक्षा कहा जाता है।" स्वामी जी ने फिर पूछा "अच्छा अब बताओ कि शिक्षा का उद्देश्य क्या होता है ?"
सभी विद्यार्थियों ने अपने अपने विचार रखने शुरू कर दिए। स्वामी जी ने हर एक छात्र के विचार को बहुत ध्यान से सुना और फिर कहा "जिस चीज से मनुष्य की शक्तियों का विकास होता है वही शिक्षा होती हैं।"
शब्दों को कंठस्थ कर लेना ही शिक्षा नहीं होता है शिक्षा से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का इस तरह विकास होता है कि वो स्वयं स्वतंत्रता से कुछ कर सकता है
तभी एक विद्यार्थी बोला "स्वामीजी, शिक्षा से हम नई नई बातें भी तो सीखते हैं।'
यह सुनकर स्वामीजी बोले, "तुम्हारी बात ठीक है बालक लेकिन नई जानकारी का अर्थ यह नहीं, कि उसमें अधकचरी और ऐसी बातें हों, जिन्हें तुम पचा ही न पाओ।
शिक्षा जीवन - निर्माण करती है, चरित्र सुगठित करती है, विचारों में सामंजस्य पैदा करती है और दुर्भावनाओं पर नियंत्रण करना भी सिखाती है।
शिक्षा तभी सार्थक होती है जब विपरीत परिस्थिति में भी शिक्षा का सही प्रयोग करके विजय प्राप्त की जाए, व्यक्ति शिक्षा का सदुपयोग कर न केवल अपना और अपने परिवार का, बल्कि पूरे देश का भला करता है।
स्वामीजी की बातें सुनकर वहां उपस्थित विद्यार्थी एक स्वर में बोले, "स्वामीजी, आज से हम भी शिक्षा ग्रहण कर हर अशिक्षित व्यक्ति को शिक्षित करने का प्रयास करेंगे। जो गलत और रूढिवादी बातें लोगों में भ्रम बनकर फैली हैं, उन्हें दूर करेंगे ।"
विद्यार्थियों की बातें सुनकर विवेकानंद बोले "अगर तुम सब आज से ही ऐसा करना प्रारंभ कर दोगे तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में तकनीकी ज्ञान भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होगा और तकनीकी स्तर पर भी भारत विश्व के सामने नई नजीर पेश करेगा।"
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शिक्षा का मनोविज्ञान - Psychology of Education :-
शिक्षा एक कला है और शिक्षक उस कला का एक कुशल कलाकार है तथा शिक्षारूपी कला मे शिक्षकरूपी एक कुशल कलाकार शिक्षार्थी को जिस माध्यम से उस कला में निपुण कराता है उस माध्यम को मनोविज्ञान कहते हैं।
शिक्षा एक प्रकार से मनोविज्ञान ही है, क्योंकि कोई भी अध्यापक विद्यार्थी के मन को जाने बिना शिक्षा नहीं दे सकता है, इसलिए अध्यापक को चाहिए कि वह सबसे पहले विद्यार्थियों के मन को पढ़ने की कोशिश करें, फिर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम करना चाहिए।
शिक्षा का मनोविज्ञान ? इसे समझने के लिए हम एक कहानी के माध्यम से देखते हैं:-
एक समय की बात है, एक नगर में एक राजा राज्य करता था। उसके पुत्र भी थे, जो कुछ समय बाद युवराज बनने जा रहे थे।
राजकुमार होने के कारण धन संपदा तो बहुत थी, लेकिन बौद्धिक रुप से हीन ही थे।
राजा के समक्ष विकट समस्या सामने आ रही थी, कि भविष्य में राज्य कौन करेगा?
एक दिन मंत्रियों के सुझाव पर राजा ने संपूर्ण राज्य में राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए योग्य गुरु की तलाश के लिए जगह जगह संदेश भेजा जा रहा था।
संपूर्ण राज्य के अनेक विद्वान राजकुमार को अध्ययन कराने के लिए उपस्थित हुए थे, लेकिन वे सभी विद्वान मनोविज्ञानिकता से रहित होने के कारण से कोई भी इस कार्य में सफल नहीं हो सका।
राजा सभी गतिविधियों का निरीक्षण करके निराश सा होता जा रहा था, लेकिन राजा ने हार नहीं मानी।
कुछ समय बाद एक विद्वान राज्य सभा में आया और राजा से कहने लगा, कि मैं राजकुमार को अपनी बुद्धि के बल से, अपनी शिक्षा के बल से योग्य बना दूंगा।
यह सुनते ही मानो राजा को उज्जल भविष्य की किरण मिल गई हो - ऐसा लगने लगा था।
सभी योग्य बातों का परामर्श होकर राजकुमार गुरु विष्णु शर्मा से शिक्षा लेने लगे।
विद्वान विष्णु शर्मा ने सबसे पहले राजकुमारों का मानसिक परीक्षण किया लेकिन राजकुमार सफल नहीं हो सके।
फिर प्रकांड विद्वान विष्णु शर्मा ने मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए पशुओं की कहानियों के माध्यम से राजकुमारों को नीतिशास्त्र का, अर्थशास्त्र का, खगोलशास्त्र का इत्यादि अनेक शास्त्रों का ज्ञान कराया। जिन कहानियों के माध्यम से राजकुमारों को शास्त्रों का ज्ञान कराया, आज भी वे कहानियां हितोपदेश और पंचतंत्र नामक पुस्तक में उपलब्ध है जो कि यह दोनों पुस्तके विद्वान विष्णुशर्मा की ही है
इस कहानी के माध्यम से यह पूर्णतया सिद्ध होता है कि किसी भी अध्यापक को चाहिए, कि वह जब भी विद्यार्थियों को अध्ययन करावे तो वह विद्यार्थियों के मनोविज्ञान को अवश्य अवलोकन करें।
इस कहानी से हम शिक्षा के मनोविज्ञान को समझ सकते हैं, क्योंकि हमें यदि किसी को शिक्षा देनी है, तो हमें पहले उसके मनोविज्ञान को अच्छी तरह से पढ़ लेना चाहिए इसके बिना हम उसे कोई भी शिक्षा देंगे तो वह ग्रहण नहीं कर सकेगा।