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शिक्षक और राष्ट्र एक दूसरे के पूरक : आचार्य चाणक्य |
शिक्षक और राष्ट्र एक दूसरे के पूरक : आचार्य चाणक्य :-
शिक्षक और राष्ट्र एक दूसरे के पूरक है इसे हम आचार्य चाणक्य के चिंतन के माध्यम से देखते हैं जो कि इस प्रकार से है..
शिक्षक व परिषद गौरव शाली तब होगा जब राष्ट्र गौरव शाली होगा।
राष्ट्र गौरव शाली तब होगा जब राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों व परम्पराओं का निर्वाह करने में सफल व सक्षम होगा।
राष्ट्र सफल व सक्षम तब होगा जब शिक्षक अपना उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में सफल होगा।
शिक्षक सफल तब होगा जब वह प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में सफल हो।
यदि व्यक्ति राष्ट्रीय भाव से शून्य है राष्ट्र भाव से हीन है। अपनी राष्ट्रीयता के प्रति सजग नहीं है तो यह शिक्षक की असफलता है।
और हमारा इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में हमनें अपने राष्ट्र को अपमानित होते देखा है।
हमारा इतिहास गवाह है कि शस्त्र से पहले हम शास्त्र के अभाव से पराजित हुए है।
हम शस्त्र और शास्त्र धारण करने वालों को राष्ट्रीयता का बोध नहीं करा पाए और व्यक्ति से पहले खण्ड खण्ड हमारी राष्ट्रीयता हुई।
शिक्षक इस राष्ट्र की राष्ट्रीयता व सामर्थ्य को जागृत करने में असफल रहा।
यदि शिक्षक पराजय स्वीकार कर ले तो पराजय का वह भाव राष्ट्र के लिए घातक होगा इसलिए वेद वंदना के साथ साथ राष्ट्र वंदना का स्वर भी दिशाओं में गूजना आवश्यक है। आवश्यक है व्यक्ति व व्यवस्थाओं को ये आभास कराना कि यदि व्यक्ति की राष्ट्र की उपासना में आस्था नहीं रही तो
वासना के अन्य मार्ग भी संघर्ष मुक्त नहीं रह पाएंगे।
इसलिए व्यक्ति से व्यक्ति व व्यक्ति से समाज व समाज से राष्ट्र का एकीकरण आवश्यक है अत शीघ्र ही व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना होगा और वह सूत्र राष्ट्रीयता ही हो सकती है।
शिक्षक इस चुनौती को स्वीकार करे वह शीघ्र ही राष्ट्र का नव निर्माण करने को सिद्ध हो।
संभव है कि आपके मार्ग में बाधाएं आएगी पर शिक्षक को उन पर विजय पानी होगी और आवश्यकता पड़े तो शिक्षक शस्त्र उठाने में भी पीछे न हटे।
मैं स्वीकार करता हूं कि शिक्षक का सामर्थ्य शास्त्र है यदि मार्ग में शस्त्र बाधक हो और राष्ट्र मार्ग के कंठक मात्र शस्त्र की ही भाषा समझते हो तो शिक्षक उन्हें सामर्थ्य का परिचय अवश्य दे। अन्यथा सामर्थ्य हीन शिक्षक अपने शास्त्रों की भी रक्षा नहीं कर पाएगा।
संभव है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए शिक्षक को सत्ताओं से भी लड़ना पड़े, पर स्मरण रहे है कि सत्ताओं से राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है राजनैतिक सत्ताओं के हितों से राष्ट्रीयहित महत्त्वपूर्ण है अत राष्ट्र की वेदी पर सत्ताओं की आहुति देनी पड़े तो भी शिक्षक संकोच न करे।
इतिहास साक्षी है कि सत्ता व स्वार्थ की राजनीति ने इस राष्ट्र का अहित किया है हमें अब सिर्फ इस राष्ट्र का विचार करना है।
यदि शासन सहयोग दे तो ठीक, अन्यथा शिक्षक अपने पूर्वजों के पुण्य व कीर्ति का स्मरण कर अपने उत्तरदयित्व
निर्वाह करने में सिद्ध हो।
विजय निश्चित है इस राष्ट्र के जीवन मूल्यों की।
विजय निश्चित है इस राष्ट्र की।
आवश्यकता है मात्र आवाहन की।
ध्यान रहें आचार्य चाणक्य ने शिक्षक और राष्ट्र को एक दूसरे का पूरक माना है ना कि नेता और राष्ट्र को।